धारा 377 को निरस्त हुए सात वर्ष: स्वतंत्रता मिली, समानता टलती रही wikimedia commons
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धारा 377 को निरस्त हुए सात वर्ष: स्वतंत्रता मिली, समानता टलती रही

धारा 377 को अपराध की श्रेणी से बाहर किए हुए अब सात वर्ष हो चुके हैं। उस फैसले के बाद जो उत्साह और उल्लास था, वह अब समान अधिकारों, पहचान और कानूनी समाधान की मांगों में बदल गया है।

न्यूज़ग्राम डेस्क

आज 6 सितंबर 2025 को भारतीय उच्चतम न्यायालय द्वारा धारा 377 को खारिज कर दिया गया था। इस फैसले (नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ) ने देश के ट्रांसजेंड समुदाय को कानूनी रूप से स्वीकार्यता प्रदान की; लेकिन आज तक समानता की राह अधूरी ही है।

कानूनी रूप से स्वीकृति लेकिन समाज में असामान्यता जारी

अब कानून के डर से कोई आपको “आप होने” पर परेशान नहीं कर सकता—लेकिन समलैंगिक जोड़ों के पास वैवाहिक अधिकार नहीं हैं; वे संपत्ति, गोद लेने, विरासत या मेडिकल फैसलों में समान अधिकार नहीं पा सके हैं।कई परिवारों और समाजों में समलैंगिक पहचान अभी भी नकारात्मकता से भरी है, और हिंसा के रूप में प्रतिक्रिया होती है।

गैर-अपराधीकरण का मार्ग

सेक्शन 377 एक औपनिवेशिक ठंडा अवशेष था, जिसे 1861 में सेम सेक्स लोगो के बीच में सम्भोग करना एक अपराध बनाने के लिए आया गया था। इसका उद्देश्य मुख्यतः समलैंगिक पुरुषों को निशाना बनाना था। पहली याचिका इस कानून को हटाने के लिए 1994 में एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन ने दाखिल की। 2001 में नाज़ फाउंडेशन ने दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की, और कई कानूनी लड़ाईयों के पश्चात 2009 में उच्च न्यायालय ने वैधीकरण के पक्ष में फैसला दिया।यह निर्णय समलैंगिक समुदाय के लिए एक बड़ा मील का पत्थर था, लेकिन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे पलट दिया और LGBTQ+ को “छोटा हिस्सा” बताकर न्यायिक हस्तक्षेप से इनकार कर दिया।इसके बाद, नाज़ फाउंडेशन और अन्य याचिकाकर्ताओं ने जनहित याचिका दाखिल की, जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि सेक्शन 377 संविधान के लेख 14, 15, 19 और 21 का उल्लंघन करता है। यह याचिका अंततः 2016 में सुप्रीम कोर्ट की सूची में सम्मिलित हुई।

वे रास्ते जिनसे गुज़रे हम—और वे जो अभी बाकी हैं

1994 में AIDS भेदभाव विरोधी आंदोलन ने आर-पार की लड़ाई शुरू की; बाद में 2001 में नाज़ फाउंडेशन (Naaz Foundation) ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका डाली। 2009 में हाई कोर्ट ने इसे अपराध माना, लेकिन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय पलटा। फिर 2018 में पांच जजों की एक पीठ ने मिलकर यह धारा गैर-कानूनी घोषित कर दी—एक न्यायाधीश ने कहा था: “इतिहास इस समुदाय और उनके परिवारों से माफी माँगता है।”

न्याय के बाद का उत्साह… लेकिन सीमित बदलाव

उस फैसले के तुरंत बाद, लोग खुलकर अपनी पहचान परिवार और मित्रों के सामने रखने लगे।दिल्ली से शुरू हुए प्राइड मार्चों (Pride Marches) में भागीदारी बढ़ी। कार्यस्थलों में समावेशिता की चर्चा बढ़ी, और फिल्में भी बिना स्टीरियोटाइप के ऐसी कहानियाँ दिखाने लगीं।

लेकिन यह बदलाव सामान्य नहीं था क्योकि स्कूलों, मीडिया या कार्यस्थलों में उत्पीड़न अब भी आम हैं। इस न्याय का असर छोटे शहरों और गांवों में कम दिखा। जैसे कि उत्तर प्रदेश की एक समलैंगिक महिला ने ‘द हिन्दू’ से कहा—"कानून बदल गया, लेकिन मेरे माता-पिता नहीं"।

कुछ संगठनों ने परिवर्ती चिकित्सा (conversion therapy) का भी जिक्र किया—यद्यपि यह गैरकानूनी है, फिर भी आम तौर पर होती है। कट्टरपंथी संगठन जैसे विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल इसको "पश्चिमी संस्कृति" कहकर खारिज करते हैं और कई प्राइड कार्यक्रमों में बाधा पहुंचाते हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women) भी लेस्बियन महिलाओं की पारिवारिक हिंसा की शिकायतों पर धीमा रुख अपनाता है। कई मामलों में पुलिस ट्रांसजेंड वयस्कों की बजाय उनके माता–पिता के साथ खड़ी होती है।इसका नतीजा यह है कि ट्रांसजेंडर्स की पहचान कानूनी तौर पर मान्य होने के बावजूद, उनके जीवन को जीवन को अक्सर नज़ाकत भरी उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।

कानूनी शून्यता और अधिकारों का अभाव

कानून की कमी का मतलब है कि एक कानूनी खालीपन (legal vacuum) मौजूद है। क्वीयर जोड़े अब भी शादी नहीं कर सकते, इसलिए वे संपत्ति अपने आप विरासत में नहीं पा सकते, एक-दूसरे के लिए चिकित्सकीय निर्णय नहीं ले सकते, या बच्चों को परिवार के रूप में गोद नहीं ले सकते। बहुत से लोग वसीयत या पावर ऑफ अटॉर्नी जैसे कमजोर कानूनी उपायों पर निर्भर करते हैं, जिन्हें अक्सर असहयोगी परिवार चुनौती देते हैं।

कार्यकर्ताओं का कहना है कि अपराध-मुक्त (decriminalisation) करना केवल पहला कदम था। असली बदलाव तभी आएगा जब नागरिक अधिकार और कानूनी सुरक्षा मिलेगी।

“आज़ादी के 75 साल बाद भी, ट्रांस समुदाय के पास बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं। एक तरफ़ देश स्वतंत्रता का जश्न मना रहा है, दूसरी तरफ़ ट्रांसजेंडर समुदाय शौचालय जैसी मूलभूत ज़रूरतों के लिए संघर्ष कर रहा है। सेक्शन 377 हटने के बाद भी LGBTQ+ और ट्रांसजेंडर समुदाय को वह मान्यता नहीं मिली जिसकी हमें ज़रूरत है,” कहते हैं डॉ. रंजन सिंह, जो एक ट्रांसजेंडर एक्टिविस्टऔर बिहार राज्य किन्नर कल्याण बोर्ड में नामित मंत्री हैं।

“हमारी लड़ाई टॉयलेट से संसद तक है। बराबरी का प्रतिनिधित्व पाने की अच्छी शुरुआत यह होगी कि हमें संसद में अपना प्रतिनिधि मिले। आज हमें हर जगह भेदभाव झेलना पड़ रहा है। कौन जाने सरकार हमें कब सुनेगी और हमें कब न्याय मिलेगा।”

कानूनी प्रगति और विधायी झटके

2018 के बाद से अदालतों ने सुरक्षा का दायरा बढ़ाना जारी रखा।

2024 में, केरल हाई कोर्ट ने कहा कि यौन अभिविन्यास (sexual orientation) व्यक्ति के स्वभाव का हिस्सा है और उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें माता–पिता ने अपनी बेटी को उसकी "बीमारी" से ठीक करने की मांग की थी।
2025 में, मद्रास हाई कोर्ट ने “चुने हुए परिवारों (Chosen Families)” को संवैधानिक मान्यता दी और कहा कि जीवन का अधिकार पारंपरिक पारिवारिक ढाँचों से बाहर संबंध बनाने की स्वतंत्रता भी शामिल करता है।

2019 में, संसद ने Transgender Persons (Protection of Rights) Act पारित किया, जिसने रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य में समानता का वादा किया। यह भारत में ट्रांस अधिकार लागू करने की दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम था, जो लंबे कानूनी संघर्ष के बाद आया, विशेषकर 2014 के NALSA निर्णय के बाद, जिसमें स्व-पहचान (Self-Identification) के अधिकार की पुष्टि की गई थी।
लेकिन कई लोगों ने कहा कि यह कानून अधूरा और भेदभावपूर्ण है। ट्रांस अधिकार कार्यकर्ता ग्रेस बानु ने इस अधिनियम पर कहा:
"कल्याणकारी योजनाएँ मेरी कम्युनिटी को सशक्त नहीं करतीं, सिर्फ अधिकार ही करते हैं।"
इस कानून में कानूनी मान्यता पाने के लिए बहुत ज़्यादा दफ़्तरिया बाधाएँ थीं और ट्रांस लोगों के खिलाफ अपराधों की सज़ा cis महिलाओं के खिलाफ अपराधों की तुलना में हल्की थी।

सबसे बड़ी निराशा सुप्रियो बनाम भारत संघ (2023) मामले में हुई। याचिकाकर्ताओं ने समान-लिंग विवाह की मान्यता के साथ-साथ गोद लेने, विरासत, IVF और सरोगेसी के अधिकार मांगे थे। सुप्रीम कोर्ट ने भेदभाव को स्वीकार किया लेकिन दखल देने से इनकार कर दिया और जिम्मेदारी संसद पर डाल दी, ठीक वैसे ही जैसे उसने 2013 में किया था।

न्यायमूर्ति एस. कौल ने असहमति जताते हुए कहा कि संवैधानिक अदालतों को गरिमा की रक्षा के लिए कानूनों की प्रगतिशील व्याख्या करनी चाहिए। लेकिन बहुमत ने क्वीयर जोड़ों को मान्यता के बिना छोड़ दिया। जनवरी 2025 में समीक्षा याचिका भी खारिज कर दी गई। अपराधमुक्ति (decriminalization) और पारिवारिक अधिकारों के बीच का अंतर अब भी सबसे बड़ा अधूरा काम बना हुआ है।

भारत के आपराधिक कानूनों के ओवरहॉल (Overhaul) ने भी नए खालीपन (Gaps) पैदा किए। जब IPC की जगह भारतीय न्याय संहिता (BNS) लाई गई, तो धारा 377 के समान कानून को पूरी तरह हटा दिया गया। धारा 377 की अपराधमुक्ति केवल सहमति से किए गए ‘अप्राकृतिक यौन संबंधों’ पर लागू थी, यानी गैर-सहमति वाले मामलों पर अब भी मुकदमा चलाया जा सकता था।
लेकिन BNS में ऐसा ढाँचा शामिल न करने से विधायकों ने उन प्रावधानों को भी हटा दिया, जिनमें गैर-सहमति वाले समान-लिंग यौन हमले को यौन हिंसा माना जाता था। अब पुरुषों और ट्रांस पुरुषों के खिलाफ यौन हमला कम कठोर कानूनों के तहत अनौपचारिक रूप से निपटाया जाता है, जबकि पशु-मैथुन (Bestiality) भी एक कानूनी शून्य (Legal Vacuum) में गिर गया है।

आंदोलन के भीतर

टांसजेंडर आंदोलन के भीतर भी तनाव मौजूद हैं। हिजड़ा और ट्रांस समुदायों ने 2014 के NALSA निर्णय में मान्यता की लड़ाई का नेतृत्व किया, सेक्स वर्कर संगठनों जैसे संग्राम ने ज़मीनी स्तर पर धारा 377 के दुरुपयोग को चुनौती दी, और दलित तथा ग्रामीण क्वियर समूहों ने यह उजागर किया कि भारत में जाति और वर्ग किस तरह क्वियर अनुभव को गढ़ते हैं। फिर भी, मुख्यधारा की कहानी में ये आवाज़ें अक्सर ऊँची जाति, शहरी, सिस-पुरुष दृष्टिकोणों के नीचे दब जाती हैं।

दलित क्वियर लेखक ध्रुवो ज्योति ने दृढ़ता से कहा: “क्वियर मुक्ति जाति के विनाश के बिना संभव नहीं है। वरना यह कुछ लोगों के लिए स्वतंत्रता होगी, सबके लिए समानता नहीं।” ग्रामीण क्वियर समूह, जिन्हें अक्सर मीडिया और दाताओं की नज़रों से अदृश्य कर दिया जाता है, अब भी ऐसे माहौल में सहायक नेटवर्क बना रहे हैं जहाँ कलंक हिंसक हो सकता है और संसाधन बेहद सीमित।

कॉरपोरेट प्राइड अभियानों और मुख्यधारा की कवरेज में ज़्यादातर शहरी पेशेवरों की कहानियाँ उजागर होती हैं, जबकि जमीनी स्तर के आंदोलनों को नज़रअंदाज़ किया जाता है। कार्यकर्ता कनव नारायण साहगल ने कहा है कि जीतें अधूरी ही रहेंगी यदि वे केवल “विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए इंद्रधनुषी रंगों में रंगी” हों।

आगे का रास्ता

धारा 377 को निरस्त करना ज़रूरी था, लेकिन यह कभी पर्याप्त नहीं था। संघर्ष का अगला चरण साफ़ है।

कानूनों को क्वियर विवाह और परिवारों को मान्यता देनी होगी ताकि गोद लेने, उत्तराधिकार और स्वास्थ्य संबंधी निर्णय अधर में न रहें। ट्रांसजेंडर एक्ट (Transgender Act) को फिर से गढ़ने की आवश्यकता है ताकि आत्म-पहचान की बहाली हो और ठोस समर्थन मिल सके। नए आपराधिक कानूनों में मौजूद खामियों को दूर करना ज़रूरी है ताकि पुरुष और ट्रांस पुरुष हमलों की स्थिति में न्याय से वंचित न रहें।

नीतियों को भी प्रतीकवाद से आगे जाना होगा। स्कूलों में एंटी-बुलींग व्यवस्था होनी चाहिए, कार्यस्थलों पर लागू होने वाले भेदभाव-विरोधी नियम होने चाहिए, और स्वास्थ्य व्यवस्था को क्वियर और ट्रांस मरीजों के प्रति रोज़मर्रा की असंवेदनशीलता समाप्त करनी होगी।

सबसे अहम बात, आंदोलन को अपनी पूरी विविधता को आत्मसात करना होगा। यदि ट्रांस महिलाओं, दलित क्वियर कार्यकर्ताओं, सेक्स वर्करों और ग्रामीण समूहों की नेतृत्वकारी भूमिका को केंद्र में नहीं रखा गया, तो प्रगति उसी बहिष्कार को दोहराने का ख़तरा रखती है, जिसके ख़िलाफ़ यह लड़ाई लड़ी जा रही है।

Dhruv Sharma is a student of social sciences at Ambedkar University

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