Culture

जब Shankaracharya को करना पड़ा था Grihasth Ashram में प्रवेश

शंकराचार्य जी का किसी को पराधीनता में बाँधने का कोई उद्देश्य नहीं था बल्कि वो समाज में वैदिक ज्ञान का प्रसार करके, सोए हुए समाज को पुनःजागृत करना चाहते थे।

Prashant Singh

अद्वैतवाद के प्रणेता आदि गुरु Shankaracharya के जीवन से सम्बंधित वैसे तो कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, पर एक लोक कथा के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि उनके सामने एक बार ऐसी विकट परिस्थिति उत्पन्न हो गई जिसके कारण उन्हें गृहस्थ आश्रम (Grihasth Ashram) में प्रवेश करना पड़ा था। आज Shankaracharya Jayanti 2022 पर आइए हम जानते हैं कि ऐसा क्या हुआ था जब एक ब्रह्मचारी को गृहस्थ का ज्ञान लेना पड़ा।

कहा जाता है कि जब वो दक्षिण से उत्तर की तरफ भारत (India) भ्रमण करते हुए वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार कर रहे थे तब उन्हें एक गाँव में कुछ समय के लिए रुकना पड़ा। वहां मंडन मिश्र नामक एक धर्म-ज्ञानी रहते थे, जिनके आगे बड़े से बड़ा ज्ञानी कभी टिक नहीं पाया। ऐसे में शंकराचार्य भी मंडन मिश्र के समक्ष शास्त्रार्थ के लिए प्रस्तुत हुए। नियम स्थापित हुआ कि यदि शंकराचार्य हारते हैं तो उन्हें सन्यास त्याग कर गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करना होगा और यदि मंडन पराजित होते हैं तो उन्हें अपनी गृहस्थी त्याग, सन्यास धर्म का निर्वहन करते हुए शंकराचार्य का शिष्य होना स्वीकार करना होगा।

सोए हुए समाज को पुनःजागृत करना चाहते थे शंकराचार्य [Wikimedia Commons]

सब कुछ नियत होने के बाद भी प्रश्न यह उठा कि इसका निर्णायक कौन बनेगा? इस पर अनेकों विचार मंथन के बाद  मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती को निर्णायक बनाया गया। उभय भारती एक संभ्रांत स्त्री थीं और शाश्त्रों की ज्ञानी थीं। गृहस्थी को निभाते हुए इस कार्य को करना थोड़ा कठिन था पर उन्होंने इसका भी रास्ता निकाल लिया। वो प्रतिदिन दोनों ही प्रतिभागियों के गले में ताजे पुष्प की माला डाल देतीं, और प्रत्येक शाम को माला को देखकर समझ जातीं थी की प्रतिस्पर्धा कैसी रही। असल में उन्होंने यह बुद्धि लगायी थी कि यदि प्रतिभागी क्रोध में होंगे थे उनके शरीर के ताप से वो मुलायम पुष्प कुम्हला जाएँगे, और क्रोधित होना किसी भी वेदज्ञ अथवा शास्त्रज्ञ के लिए सबसे बड़ी हार होगी।

शास्त्रार्थ कई दिन तक चलता रहा और अंततः परिणाम यह आया की मंडन मिश्र ने हार स्वीकार कर ली। इसपर उभय भारती ने कहा कि अभी प्रतियोगिता सम्पन्न नहीं हुई है, इनकी अर्द्धांगिनी होने के नाते जब तक शंकराचार्य उन्हें भी प्रतिस्पर्धा में नहीं हरा देते तब तक कोई भी निर्णय सुनिश्चित नहीं हो सकता।

शंकराचार्य ने पुनः चुनौती को स्वीकार किया। विभिन्न विषयों पर यह शास्त्रार्थ 17 दिनों तक चला और अंततः सवयं को हारता हुआ देखकर उन्होंने काम-शास्त्र और सम्भोग जैसे विषयों पर प्रश्न किया। सभी ने इसका विरोध किया कि एक बाल्यकाल से ही ब्रह्मचर्य को धारण करने वाले व्यक्ति को इस विषय में सोचना भी पाप है, फिर उनसे इस तरह का प्रश्न सर्वथा अनुचित है। इसपर भारती जी ने कहा कि यह भी एक शाश्त्र है और सर्वज्ञाता के लिए ज्ञान में भेद क्यों ?

शंकराचार्य ने इस विकट परिस्थिति का भी उपाय खोज निकाला और कुछ माह का समय मांगा। वो शिष्यों के साथ जंगल की तरफ बढे़, जहाँ उनको राजा अमरु का शव दिखाई दिया। अपने शिष्यों को अपने शरीर की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी देकर परकाया प्रवेश की विद्या द्वारा उन्होंने राजा के शरीर में प्रवेश किया और राज्य में जाकर रानियों द्वारा कामशास्त्र के सभी नियम तथा ज्ञान को प्राप्त करके उभय भारती के पास पुनः वापस लौटे तथा उनके सभी प्रश्नों का उचित उत्तर दिया। इसके बाद पूर्व निर्धारित निर्णय के तहत मंडन मिश्र को शंकराचार्य को अपना गुरु स्वीकार करके संन्यास ग्रहण करना पड़ा।

यहाँ एक बात पर ध्यान देने वाली बात है कि शंकराचार्य जी का किसी को पराधीनता में बाँधने का कोई उद्देश्य नहीं था बल्कि वो समाज में वैदिक ज्ञान का प्रसार करके, सोए हुए समाज को पुनःजागृत करना चाहते थे।

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