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एक गिरफ़्तारी जिसने जन्मा क्रांति का आक्रोश

Shantanoo Mishra

रोबिन हुड के विषय में सबने पढ़ा होगा, और अधिकांश युवाओं ने उनकी कहानी को अपना प्रेरणा स्रोत भी बना लिया होगा। किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत के ही एक वीर की कहानी पश्चिमी चकाचौंद में कहीं खो गई है। भारत के इतिहास और भारत के शौर्य को न तो हम युवाओं तक पहुँचाया गया और न ही हमने उन्हें खोजने की पहल की। अंग्रेजी शासन में रसूकदारों से अनाज लूटकर जरूरतमंद गरीबों में वितरित करना उस समय में देश-द्रोह माना जाता था। लेकिन क्रांति के मतवालों ने अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि जनता के भले के लिए यह अपराध भी अपनाने में पीछे नहीं हटे। यह कहानी है शहीद वीर नारायण बिंझवार की।

वीर नारायण सिंह के पूर्वज गोंड जाति से नाता रखते थे और इसी वंश ने 16वीं सदी में वर्तमान के छत्तीसगढ़ राज्य में सोनाखान सूबे की स्थापना की थी। किन्तु गोंडमारु के डर से उन्होंने गोंड जाति से बिंझवार जाति में परिवर्तन करा लिया। क्योंकि उन दिनों दिल्ली के तख़्त पर मुग़ल शासन कर रहे थे। और उस समय वर्तमान का सम्पूर्ण मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, तेलंगाना और महाराष्ट्र का कुछ हिस्से गोंड़वाना भूभाग में आते थे। और इसी भूभाग पर मुगलों की भी नज़र थी। जिसके बाद मुग़ल सेना ने गोंड़वाना पर हमला कर दिया। जिसके उपरांत कुछ गोंड शासकों ने मुस्लिम धर्म अपना लिया और धर्मपरिवर्तन न करवाने वाले राजा और उसके राज्य पर अत्याचार करने लगे। इन्हीं धर्म परिवर्तित राजाओं को गोंडमारु के नाम से जाना गया।

वीर नारायण सिंह के पिता रामसाय दीवान 84 गावों के दीवान थे जो कि उन्हें विरासत में मिली थी। युवराज नारायण सिंह वीर एवं प्रजा के प्रति समर्पित थे। वह अपने स्वामी भक्त घोड़े पर सवार होकर प्रजा का दुःख-दर्द जानने निकल जाते। एक बार उन्हें खबर मिली कि सोनाखान इलाके में एक आदमखोर शेर ने उत्पात मचा रहा है। जिसके बाद वह उस शेर से सामना करने निकल पड़े। कई दिन ढूंढने के बाद भी वह शेर नहीं मिला, किन्तु जब एक वीर जब ठान लेता है तो उसे रोक पाना असंभव है। कई दिनों बाद, पास के गांव से खबर मिली कि उस इलाके में शेर ने फिर उत्पात मचाना शुरू कर दिया है। तब वीर नारायण सिंह उस शेर के समक्ष निहत्ते कूद गए। दोनों के बीच भयंकर द्वंद हुआ और नारायण सिंह पर कई खरोंचें आई और शेर भी पस्त होने लगा, तब मौका देख गोंड़वाना के शेर ने उस आदमखोर को अपनी कटार से वार कर परास्त कर दिया।

वीर नारायण सिंह का गोंड़वाना के शूरवीरों में सर्वप्रथम नाम आता है। और उनकी वीर गाथाओं को आज भी स्थानीय लोग कहते-सुनते नज़र आ जाते हैं।

सूबे में सूखे की वजह से अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी।(Pinterest)

1856 में इलाके में सूखे की वजह से अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई थी और इस समय तक अंग्रेज शासन और उन्ही के चाटूकार साहूकारों ने अपना कुनबा मजबूत कर लिया था। जमाखोरी और अवैध रूप से सामान का आदान-प्रदान का काला धंधा अंग्रेज हुकूमत के सामने बे रोक-टोक चल रहा था। जमाखोरी और ब्याज का धंधा करने से साहूकारों को आसमान छूने में बहुत काम समय लगा। सूखे का फायदा उठाकर जमाखोर मोटा मुनाफा कमाने की फ़िराक में थे। और इसका प्रभाव छोटे कस्बों में दिखने भी लगा था।

जब शोषण और अन्न दोनों का मोल आसमान छूने लगा तब राज्य के लोग वीर नारायण सिंह के समक्ष मदद की गुहार ले कर गए। जिसके उपरांत यह फैसला हुआ कि कसडोल वाले महाजन परिवार से अन्न को कर्ज के रूप में लिया जाएगा और उसके ब्याज का भुगतान भी किया जाएगा। किन्तु, महाजन ने ज़्यादा मुनाफे के लालच की चपेट में आकर इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब सभी गोंड़वाना वासियों और सहायता मांगने आए अन्य नेताओं ने यह प्रतिज्ञा लिया कि हम साहूकारों द्वारा किए जा रहे इस अत्याचार को और सहन नहीं करेंगे। तब वीर नारायण सिंह के नेतृत्व में हज़ारों लोगों ने कसडोल गांव की तरफ मोर्चा खोल दिया। जब वीर नारायण सिंह कसडोल पहुंचे तब उन्होंने पुनः उस साहूकार से कर्ज की गुहार की, क्योंकि बुद्धिमान का पहला कदम विनम्रता से बात को सुलझाना होता है। किन्तु जब इस बार भी जब वह महाजन नहीं माना तब जनता की भलाई के लिए उसे लूटने के सिवा और कोई चारा नहीं बचा था। इसके उपरांत महाजन के गोदाम को वीर नारायण सिंह ने अपने कब्जे में कर लिया और जरूरतमंदों में बराबर हिस्से अन्न को वितरित किया।

जब इस घटना की शिकायत महाजन ने अग्रेजों से की तो वह वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार करने लिए धमक पड़े। किन्तु उन अंग्रेजों को यह भलीभांति पता था कि नारायण सिंह को गिरफ्तार करना आसान काम नहीं है। इसलिए उन पर देशद्रोह और लुटेरा होने का झूठा आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर रायपुर ले गए। किन्तु, अपने नेता की गिरफ़्तारी के बाद विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ी और इसी बीच वीर नारायण सिंह, मौका मिलते ही बन्दीगृह से भागने में सफल रहे।

जिसके उपरांत वीर नारायण सिंह के नेतृत्व में गोंड, कंवर, धनुहर, बिंझवार के नौजवानों और किसानों ने हर तरह के हथियारों से लैस हो कर अंग्रेज साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद कर दिया। प्रत्येक संग्राम में अंग्रेजों ने छल और कपट का साथ लिया और महाजन वर्ग को अपने खेमे कर लिया। यहाँ तक की देवरी के जमींदार एवं वीर नारायण सिंह के बहनोई को भी अंग्रेजों का साथ दिया। किन्तु गोंड़वाना शेरों के सामने अंग्रेज कहाँ टिक सकते थे। वीर नारायण सिंह गोरिल्ला रणनीति का इस्तेमाल कर अंग्रेजों पर वार करते थे और उन्हें इसका फायदा भी मिलता था। रात को विश्राम करने के लिए वीर नारायण सिंह कुर्रूपाट में ठहरते थे, जहाँ तक पहुँच पाना अंग्रेजों के लिए असंभव के समान था। परन्तु जासूसों द्वारा बताए मार्ग से अंग्रेजों ने नारायण सिंह पर धोके से हमला कर उन्हें पुनः बंदी बना लिया।

10 दिसम्बर 1857 को क्रांति की अलख जलाने वाले वीर नारायण सिंह को फाँसी दे दी गई।(Pixabay)

इस बार बंदीगृह में उन्हें कड़ी सुरक्षा में रखा गया। उन्हें अंग्रेजों की अदालत में प्रस्तुत किया गया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। फैसले के रूप में उन्हें मृत्यु दंड दिया गया। अंग्रेज सरकार इस हद तक भयभीत हो चुकी थी कि वह कोई मौका बचने देना नहीं चाहती थी। क्रांति के इस वीर योद्धा को 10 दिसम्बर 1857 को फाँसी दे दी गई। क्रूर अंग्रेजों ने जनता के अंदर दहशत भरने के लिए 10 दिन तक उन्हें फाँसी पर लटकने दिया। और 10वें दिन वीर नारायण सिंह के मृत शरीर को तोप से बांधकर उड़ा दिया गया। उनके क्षतिग्रस्त हुए शरीर को ही उनके परिवार को सौंपा गया।

जिस साल शहीद वीर नारायण सिंह को फाँसी दी गई थी उसी साल शहीद क्रन्तिकारी मंगल पांडेय को फाँसी दी गई। किन्तु न तो आज के युवा को मंगल पांडेय के बलिदान के विषय में कुछ इतिहास पता है और न ही वीर नारायण सिंह को आज के दौर में याद किया जाता है। जिसका ही परिणाम है कि एक विश्वविद्यालय में आतंकी के लिए आज़ादी के नारे लगाए जाते हैं और कई राजनीतिक दल उसका समर्थन भी करते हैं।

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