भारत का इतिहास उन महिलाओं की कहानियों से भरा पड़ा है जिन्होंने तमाम सामाजिक बंधनों और भेदभाव के बावजूद अपनी पहचान बनाई। लेकिन क्या आप जानते हैं कि देश की पहली महिला वकील को केवल महिला होने की वजह से स्कॉलरशिप नहीं मिल पाई थी? और तो और उन्हें ज़हर देकर मरने की भी कोशिश की गई थी। जी हां, यह कहानी है कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji) की, जिन्होंने भारतीय समाज में महिलाओं की शिक्षा और अधिकारों की नींव रखी।
19वीं सदी का वह दौर था जब महिलाओं का घर से बाहर निकलकर पढ़ना तक समाज को मंजूर नहीं था। ऐसे समय में कॉर्नेलिया (Cornelia Sorabji) ने न सिर्फ उच्च शिक्षा हासिल की, बल्कि भारत और कानून जैसे पुरुष-प्रधान क्षेत्र में कदम रखकर इतिहास रच दिया। उन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने का मौका तो मिला, लेकिन महिला होने की वजह से उन्हें स्कॉलरशिप से वंचित कर दिया गया। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और अपने संघर्ष व प्रतिभा के दम पर वह मुकाम हासिल किया जो आज भी लाखों महिलाओं के लिए प्रेरणा है। उनकी यह यात्रा सिर्फ एक वकील बनने की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस सोच को चुनौती देने की गाथा है, जिसमें महिलाओं को पढ़ाई और करियर का हकदार तक नहीं माना जाता था।
भारत की पहली महिला वकील कौन थीं?
भारत की पहली महिला वकील (First Woman Lawyer Of India) थीं कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji)। उनका जन्म 15 नवंबर 1866 को महाराष्ट्र के नासिक में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता एक मिशनरी से जुड़े थे और मां सामाजिक कामों के लिए जानी जाती थीं। ऐसे माहौल ने कॉर्नेलिया को समाज सेवा और शिक्षा की ओर प्रेरित किया। उस दौर में जब महिलाएं घर की चारदीवारी तक ही सीमित थीं, कॉर्नेलिया ने पढ़ाई को अपना हथियार बनाया।
वह बॉम्बे विश्वविद्यालय (Bombay University) से स्नातक करने वाली पहली महिला बनीं। यहीं से उनके भीतर वकालत की ओर रुझान पैदा हुआ। महिलाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों के लिए लगातार काम करते हुए उन्होंने समझा कि कानून ही वह रास्ता है जिससे समाज में बदलाव लाया जा सकता है। कॉर्नेलिया ने हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड जैसे बड़े विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का सपना देखा और उसे पूरा भी किया। वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई करने वाली पहली महिला बनीं। आगे चलकर उन्होंने भारत और ब्रिटेन दोनों जगह लीगल प्रैक्टिस की और यह सम्मान पाने वाली पहली भारतीय महिला वकील बनीं।
आसान नहीं था ऑक्सफोर्ड तक का सफर
कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji) का ऑक्सफोर्ड तक का सफर बेहद कठिनाइयों से भरा हुआ था। उस समय भारत में महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा पाना ही एक बड़ी चुनौती थी। उन्होंने पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और परीक्षा में सबसे अधिक अंक भी प्राप्त किए, लेकिन सिर्फ महिला होने की वजह से उन्हें स्कॉलरशिप नहीं मिल पाई। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी लगन से आगे बढ़ती रहीं। साल 1892 में कॉर्नेलिया बैचलर ऑफ सिविल लॉ की परीक्षा पास करने वाली पहली महिला बनीं। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी, लेकिन विडंबना यह रही कि उस समय कॉलेज ने उन्हें डिग्री देने से मना कर दिया। वजह सिर्फ इतनी थी कि उस दौर में महिलाओं को वकालत के लिए रजिस्टर करने और प्रैक्टिस की अनुमति ही नहीं थी।
भारत में महिलाओं के लिए संघर्ष और न्याय की राह
ऑक्सफ़ोर्ड से कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji) भारत लौट आईं और बैरिस्टर बनकर महिलाओं के लिए न्याय दिलाने की ठानी। उस समय भारत और ब्रिटेन में महिलाओं को वकील के तौर पर प्रैक्टिस करने का अधिकार नहीं था, और कई रियासतों में महिलाएं पूरी तरह पुरुषों के अधीन थीं। पर्दा प्रथा और सामाजिक बंदिशों के कारण महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज़ नहीं उठा पाती थीं।
कॉर्नेलिया ने पाया कि कई महिलाएं परिवार के पुरुषों के अत्याचार सह रही थीं और संपत्ति या गुज़ारा भत्ता पाने के अधिकार से वंचित थीं। कई बार आवाज़ उठाने पर महिलाओं को जान का खतरा भी रहता था। समाज और कानून दोनों ने उन्हें न्याय दिलाने का रास्ता नहीं दिया, लेकिन कॉर्नेलिया ने हार नहीं मानी। उन्होंने सरकार से अपील की कि उन्हें हिंदू और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने के लिए क़ानूनी सलाहकार बनाया जाए, लेकिन नियमों का हवाला देकर उनकी माँग ठुकरा दी गई। इसके बावजूद उन्होंने अकेले ही अगले करीब 20 वर्षों तक वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और कई बार जासूस की भूमिका निभाई। इस दौरान उन्होंने 600 से अधिक महिलाओं को न्याय दिलाया, उनके हक़ सुरक्षित किए और उन्हें पुरुषों के अत्याचार से मुक्ति दिलाई। उनकी यह यात्रा साहस, समर्पण और न्याय की मिसाल है।
कॉर्नेलिया सोराबजी को जहर देने की कोशिश
कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji) अपने समय की एक बेहद साहसी और समर्पित महिला थीं। उन्होंने कई रियासतों और परिवारों में दुश्मनी मोल लेने के बावजूद महिलाओं की मदद करना जारी रखा। वे किसी न किसी बहाने से इन घरों में दाख़िल होतीं और महिलाओं से दोस्ती करके उनकी समस्याओं के बारे में जानकारी लेतीं। फिर पुलिस और अधिकारियों की मदद से इन महिलाओं को न्याय और राहत दिलातीं।
रिचर्ड सोराबजी के अनुसार, एक बार कॉर्नेलिया एक महिला की मदद कर रही थीं जिसे उसके ससुराल वालों ने गुज़ारा भत्ता देने से इनकार कर दिया था। कॉर्नेलिया की मेहनत और समझदारी से अंततः परिवार ने महिला को भत्ता देने पर सहमति दी।उन्होंने महिला के लिए एक तोहफ़ा भी खरीदा, लेकिन उनका तेज दिमाग़ शांति से बैठ नहीं सका। जांच करने पर पता चला कि पोशाक में ज़हर छिपा हुआ था। इस घटना ने दिखाया कि कॉर्नेलिया न केवल न्याय दिलाने में माहिर थीं, बल्कि किसी भी खतरे से सावधान रहते हुए महिलाओं की रक्षा भी करती थीं।
जब सोराबजी को छोड़नी पड़ी वकालत
साल 1923 में कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji) कलकत्ता हाईकोर्ट में बतौर बैरिस्टर कानून की प्रैक्टिस करने वाली पहली महिला बनीं। यह उपलब्धि उस समय के लिए बेहद महत्वपूर्ण थी, क्योंकि महिलाओं के लिए वकालत करना लगभग असंभव माना जाता था। लेकिन उम्र और सामाजिक परिस्थितियों के कारण वे ज्यादा समय तक प्रैक्टिस नहीं कर पाईं। 1929 में 58 साल की उम्र में उन्हें हाईकोर्ट से रिटायरमेंट लेनी पड़ी। इस दौरान उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
महिलाओं को पेशेवर तौर पर मान्यता नहीं दी जाती थी, कई बार उन्हें कोर्ट में गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद उन्होंने अपने अनुभवों को साझा किया और बिटवीन द ट्वाइलाइट्स नामक किताब लिखी, जिसमें अपने संघर्ष और उपलब्धियों का विवरण दिया। उनके योगदान को सम्मान देने के लिए 2012 में लंदन के हाई कोर्ट कॉम्प्लेक्स में उनकी कांस्य प्रतिमा का अनावरण किया गया। कॉर्नेलिया का जीवन इस बात का प्रतीक है कि मुश्किल हालात में भी संघर्ष और दृढ़ संकल्प से इतिहास रचा जा सकता है।
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कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji) का जीवन न केवल एक वकील बनने की कहानी है, बल्कि महिला सशक्तिकरण और सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा भी है। उनके संघर्ष ने दिखाया कि लिंग भेदभाव और सामाजिक प्रतिबंध किसी की क्षमता को रोक नहीं सकते। उन्होंने न केवल भारत और ब्रिटेन में वकालत की, बल्कि लगभग 600 महिलाओं और नाबालिग लड़कियों को न्याय दिलाने में मदद की। उनके प्रयासों ने महिलाओं के लिए कानून में रास्ते खोले और आने वाली पीढ़ियों को अपने हौसले और मेहनत से बदलाव लाने की प्रेरणा दी। आज उनकी कांस्य प्रतिमा और उनकी किताब उनकी अटल धैर्य और साहस का प्रतीक हैं, जो हर महिला के लिए मार्गदर्शक बनी हुई है। [Rh/SP]