गांधीजी को पुरे जीवन में 12 बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था।  (AI)
इतिहास

दुनिया को अहिंसा सिखाने वाले गांधी, लेकिन नोबेल शांति पुरस्कार से हमेशा वंचित !

महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi), जिन्होंने सत्य और अहिंसा (Nonviolence) से साम्राज्यवादी ताकतों को झुकाया, पाँच बार नोबेल (Nobel) शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए, लेकिन हर बार राजनीतिक दबाव और यूरोपीय पूर्वाग्रह के कारण उपेक्षित रहे। विडंबना यह कि मंडेला और मार्टिन लूथर किंग जैसे उनके अनुयायियों को यह सम्मान मिला, लेकिन गांधी को नहीं मिला।

न्यूज़ग्राम डेस्क

महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) का नाम सुनते ही सबसे पहले मन में यही छवि उभरती है अहिंसा (Nonviolence), सत्य और शांति, महात्मा गांधी न केवल भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्त कराया बल्कि दुनिया को यह संदेश दिया कि बिना हथियार और हिंसा के भी बड़े से बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। इसके बावजूद, यह विडंबना है कि शांति और अहिंसा के सबसे बड़े पुजारी को कभी नोबेल (Nobel) शांति पुरस्कार नहीं मिला।

गांधीजी को पुरे जीवन में 12 बार नोबेल (Nobel) शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। इनमें से पाँच प्रमुख मौके उनको मिला था - 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 जो की उनकी हत्या से कुछ ही दिन पहले यह मौका उनको मिला था। लेकिन हर बार किसी न किसी कारण से समिति ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया।

नोबेल समिति के लिए गांधी का मूल्यांकन आसान नहीं था, क्योकि गांधी न तो एक पारंपरिक राजनेता थे, और न ही कोई अंतरराष्ट्रीय कानून विशेषज्ञ थे। वो किसी राहत संगठन से भी जुड़े नहीं थे और न ही किसी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजक थे। उनका रास्ता बिल्कुल अलग था उनका रास्ता था जनता को जागरूक करना, सत्य और अहिंसा को जीवन का मूल मंत्र बनाना और दमनकारी ताकतों के खिलाफ शांतिपूर्ण संघर्ष करना। समिति के सलाहकारों ने गांधी को कई बार परस्पर विरोधी शब्दों में परिभाषित किया है, उनको कभी मसीहा कहा गया, तो कभी साधारण राजनेता कहा गया।

कई आलोचकों का मानना था कि गांधी "लगातार शांतिवादी" नहीं थे। उदाहरण के लिए कहा जा सकता है, चौरी-चौरा कांड के समय उनके अहिंसक आंदोलन में हिंसा भड़क गई थी। इसके बाद समिति ने इसे गांधी की "कमजोरी" माना ताकि वो अपने आंदोलनों को हमेशा अहिंसक बनाए रखने की गारंटी नहीं दे पाए।

गांधी को नोबेल न मिलना उनकी महानता को कम नहीं करता, बल्कि यह नोबेल समिति की अपनी सीमाओं और चूक को उजागर करता है।

20वीं सदी के पहले भाग में शांति का नोबेल पुरस्कार अधिकतर पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के लोगों को ही मिला है। गैर-यूरोपीय देशों से उम्मीदवारों को समिति गंभीरता से शायद ही कभी लेती थी। गांधी के बारे में समिति के भीतर यह सवाल उठता रहा कि क्या उनका संघर्ष "सार्वभौमिक" था या केवल "भारतीय संदर्भों" तक सीमित था। यही वजह थी कि उन्हें कई बार "अत्यधिक भारतीय राष्ट्रवादी" करार दिया गया हैं। कहा जाता है कि समिति को यह डर भी था कि अगर गांधी को यह पुरस्कार दिया गया तो ब्रिटिश हुकूमत नाराज़ हो सकती है।

1947 में गांधी (Mahatma Gandhi) को फिर से नामांकित किया गया। इस बार वो पाँच उम्मीदवारों की शॉर्टलिस्ट में शामिल थे। इसके बाद समिति के इतिहासकार जेन्स अरूप सीप ने उनकी भूमिका पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। इसमें भारत की स्वतंत्रता, द्वितीय विश्व युद्ध और हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के दौरान गांधी की भूमिका का ज़िक्र किया गया था।

समिति के दो सदस्य गांधी के पक्ष में थे, लेकिन बाकी के तीन ने उनके बयानों को लेकर संदेह जताया है, खासकर पाकिस्तान के संदर्भ में गांधी के उस कथन ने विवाद खड़ा कर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर पाकिस्तान अपनी गलतियों से नहीं सुधरेंगें तो भारत को युद्ध करना पड़ सकता है। इस बयान ने गांधी की "पूर्ण अहिंसा" की छवि पर सवाल खड़े कर दिए और समिति का बहुमत उनके खिलाफ चलाया गया।

30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई थी। यह घटना नोबेल (Nobel) शांति पुरस्कार की नामांकन के अंतिम तिथि से सिर्फ दो दिन पहले हुई थी। उस समय गांधी के नाम पर पाँच प्रस्ताव पहले ही आ चुके थे।

समिति ने इस पर गंभीरता से विचार किया कि गांधी को मरने के बाद पुरस्कार दिया जाए। लेकिन दिक्कत यह थी कि गांधी ने कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी और वो किसी संगठन से जुड़े नहीं थे। ऐसे में यह तय करना मुश्किल था कि पुरस्कार राशि किसे दी जाए। अंततः समिति ने कहा कि "कोई उपयुक्त जीवित उम्मीदवार नहीं है" और उस साल किसी को भी शांति का नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया था।

महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार न मिलना इतिहास की सबसे बड़ी असमानता में गिना जाता है।

नोबेल (Nobel) शांति पुरस्कार हमेशा से विवादों में रहा है। कभी मिखाइल गोर्बाचोव, तो कभी बराक ओबामा जैसे नेताओं को यह पुरस्कार मिला और फिर इस पर आलोचकों ने कई सवाल भी उठाए है, उनका मानना है की गांधी, एलेनॉर रूज़वेल्ट और फज़्ले हसन आबेद जैसी हस्तियों को नजरअंदाज किया गया है।

भारत में तो अक्सर यह बहस होती रही है कि नोबेल समिति ने ब्रिटिश हुकूमत को नाराज़ करने से बचने के लिए गांधी को पुरस्कार नहीं दिया। आज यह सवाल अक्सर उठता रहता है की क्या गांधी जैसे महान शख्सियत को सम्मानित करने के लिए किसी नोबेल पुरस्कार की ज़रूरत थी ? इतिहासकार का मानना है कि गांधी का कद इतना बड़ा था कि नोबेल पुरस्कार की प्रतिष्ठा उनसे बढ़ सकती थी, न कि उनकी महानता को कोई और मुकाम मिलता।

रिटायर्ड आईएएस अधिकारी अमिताभ भट्टाचार्य ने लिखा था की "आधुनिक इतिहास में शायद ही कोई और शख़्स होगा जो अपने जीते-जी इतना पूजनीय और साथ ही इतना गलत समझा गया हो।" मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं ने खुले तौर पर स्वीकार किया था कि उनका अहिंसक (Nonviolence) संघर्ष गांधी से ही प्रेरित था, और दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों को नोबेल शांति पुरस्कार मिला, लेकिन उनके गुरु समान गांधी को नहीं मिला।

यह भी एक दिलचस्प सवाल है कि अगर गांधी (Mahatma Gandhi) को शांति का नोबेल मिल जाता, तो क्या वो इसे स्वीकार करते ? नोबेल पुरस्कार की स्थापना अल्फ्रेड नोबेल ने की थी, जो डायनामाइट और हथियारों के आविष्कारक थे। गांधी की अहिंसा की सोच को देखते हुए यह संदेह हमेशा बना रहता है कि क्या वो ऐसे पुरस्कार को अपने हाथों से ग्रहण करते। हालांकि, इस विषय पर गांधी ने कभी कोई सार्वजनिक टिप्पणी नहीं की।

गांधी की अहिंसा की सोच को देखते हुए यह संदेह हमेशा बना रहता है कि क्या वो ऐसे पुरस्कार को अपने हाथों से ग्रहण करते।

निष्कर्ष

महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) को नोबेल शांति पुरस्कार न मिलना इतिहास की सबसे बड़ी असमानता में गिना जाता है। पाँच बार नामांकित होने के बावजूद, वो हर बार समिति के संदेह, यूरोपीय पूर्वाग्रह और राजनीतिक दबाव के कारण वंचित रह गए। आज जब भी नोबेल (Nobel) शांति पुरस्कार की घोषणा होती है, भारत समेत पूरी दुनिया में यह बहस उठती है कि "अगर शांति का पुरस्कार किसी का सबसे पहले हक था, तो वह महात्मा गांधी थे।"

गांधी को नोबेल न मिलना उनकी महानता को कम नहीं करता, बल्कि यह नोबेल समिति की अपनी सीमाओं और चूक को उजागर करता है। सच तो यह है कि गांधीजी का नाम आज भी शांति और अहिंसा (Nonviolence) के प्रतीक के रूप में अमर है, जबकि कई नोबेल विजेताओं के नाम समय की धूल में खो गए। [Rh/PS]

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