जब एक भारतीय लड़की ने एनिड ब्लाइटन की किताब में चर्चिल का नाम पढ़ा, तो उन्हें एक महान नेता के रूप में जाना। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, भारत के उपनिवेशवादी इतिहास के काले सच सामने आने लगे। उसके बाद अब सवाल ये उठता है, क्या विंस्टन चर्चिल वास्तव में ‘महान नेता’ थे या एक ऐसे प्रधानमंत्री, जिनके फैसलों ने लाखों भारतीयों की जान ले ली?
भारत में आज भी ब्रिटिश राज को लेकर लोगों की सोच बंटी हुई है। एक ओर कुछ लोग मानते हैं कि अंग्रेज़ों ने रेलवे, डाक-सेवा और प्रशासनिक ढांचे जैसी चीज़ें दीं, तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों का कहना है, "अंग्रेज़ों ने भारत को लूटा, गरीब किया और हमें आत्महीनता में धकेल दिया।" दादा दादी के पीढ़ी के लिए ब्रिटिश राज केवल क्रूरता, अन्याय और शोषण का प्रतीक था। उन्होंने भारत को न केवल आर्थिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी कमजोर किया। आज़ादी के इतने साल बाद भी हम उस गुलामी की मानसिकता से पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं।
बंगाल का अकाल: एक अनदेखी मानव त्रासदी
साल 1943 (Bengal Famine 1943),ब्रिटिश भारत का बंगाल। (Bengal Famine 1943) का यह वह था, दौर जो अकाल से जूझ रहा था। अनुमान है कि उस अकाल में 30 लाख से अधिक लोग भूख से मर गए। यह संख्या द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य के मारे गए नागरिकों से भी कई गुना ज़्यादा थी। फिर भी, दुनिया हर साल युद्ध की जीत और उसमें मरे सैनिकों को याद करती है, पर बंगाल की इस त्रासदी को लगभग भुला दिया गया है। उस समय खेतों में लाशें पड़ी थीं, नदियों में शव बह रहे थे। लोगों के पास न तो कफ़न था, न रोटी।
इतिहासकार यास्मीन खान और कई ब्रिटिश दस्तावेज़ों के मुताबिक, चर्चिल और उनकी कैबिनेट ने जानबूझकर बंगाल के लिए अनाज की मदद नहीं भेजी। उनके फैसलों की वजह से भूख और भयानक रूप ले गई। जब बर्मा में जापानी सैनिकों के घुसपैठ का खतरा बढ़ा था, तो ब्रिटेन ने ‘स्कॉर्च्ड अर्थ पॉलिसी’ अपनाई। इसके तहत खेत जलाए गए, नावें नष्ट कर दी गईं ताकि दुश्मन को कोई संसाधन न मिले। लेकिन इसका सीधा नुकसान उन भारतीयों को हुआ, जिनके पास खाने का एक दाना भी नहीं बचाथा। चर्चिल (Winston Churchill) ने भारत से अनाज निर्यात की मांग को भी ठुकरा दिया था। उनका मानना था कि "भारतीय खरगोशों की तरह बच्चे पैदा करते हैं," इसलिए मदद करना व्यर्थ है।
ब्रिटेन में कुछ इतिहासकार यह भी दावा करते हैं कि चर्चिल ने भारत की मदद करने की कोशिश की थी लेकिन युद्ध की वजह से देर हुई। लेकिन भारत में कई लोगों का मानना है कि ये देरी जानबूझकर की गई थी, और चर्चिल के लिए गोरों की जान कीमती थी, भारतीयों की नहीं। ब्रिटेन के भारत मंत्री लियोपोल्ड ऐमेरी ने अपनी डायरी में लिखा है कि चर्चिल भारत की मदद को लेकर बेहद असंवेदनशील थे।
बंगाल के मशहूर अभिनेता सौमित्र चटर्जी उस समय केवल 8 साल के थे। वो कहते हैं, "हर कोई कंकाल जैसा दिखता था। लोग माड़ (चावल का पानी) मांगते हुए रोते थे। जो वो आवाज़ एक बार सुन ले, वो कभी नहीं भूल सकता।" ये दृश्य किसी युद्ध से कम नहीं थे, लेकिन युद्ध के विजेता चर्चिल को इसके लिए कोई दोषी नहीं मानता। ब्रिटेन में विंस्टन चर्चिल (Winston Churchill) को अब भी द्वितीय विश्व युद्ध का हीरो माना जाता है। लंदन में उनकी मूर्तियाँ हैं, स्कूलों में उनके भाषण पढ़ाए जाते हैं। लेकिन भारत में उनकी छवि एक ऐसे नेता की है, जिसकी वजह से लाखों लोग भूख से मर गए। चर्चिल युद्ध के नायक थे, लेकिन 1943 के बंगाल अकाल के दोषी भी थे।"
सौमित्र चटर्जी कहते हैं, "आज भी समय है कि ब्रिटिश सरकार माफ़ी मांगे।" कई भारतीय यह मानते हैं कि माफ़ी से अतीत नहीं बदलेगा, लेकिन ये एक सांकेतिक क्षमा होगी, एक ज़ख्म पर मरहम रखने की कोशिश होगी। ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के दौरान चर्चिल (Winston Churchill) की मूर्ति पर कालिख पोत दी गई थी। यह उस गुस्से की अभिव्यक्ति थी जो अब धीरे-धीरे पूरी दुनिया में उपनिवेशवाद के खिलाफ जाग रहा है।
आज की दुनिया उन ‘नायकों’ की दोहरी तस्वीरें देख रही है, जिन्हें एक ज़माने में केवल एक दृष्टिकोण से देखा गया। जैसे महात्मा गांधी पर भी अफ्रीका में कालों को लेकर भेदभावपूर्ण सोच रखने के आरोप लगे हैं। लेखिका एनिड ब्लॉयटन की किताबों को नस्लवादी और सेक्सिस्ट कहा गया। तो क्या इसका मतलब यह तो नहीं होता की हम इतिहास के सारे किरदारों को फेंक दें? शायद नहीं। लेकिन हम सच के साथ जीना ज़रूर सीख सकते हैं। हम अपने बच्चों को अब ऐसी किताबें पढ़ा सकते हैं जो बराबरी, करुणा और इंसानियत की बात करती हों।
निष्कर्ष
भारतीयों के लिए विंस्टन चर्चिल (Winston Churchill) को एक ‘महान नेता’ के रूप में स्वीकार कर पाना इसलिए कठिन है, क्योंकि उनके निर्णयों की कीमत हमने अपने लोगों की ज़िंदगियों से चुकाई। भूख से मरे वो लाखों लोग कोई ‘कोलैटरल डैमेज’ नहीं थे, वो हमारे दादा, नानी, रिश्तेदार और आम नागरिक थे।
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अतीत को एकतरफा नहीं देखा जाना चाहिए। चर्चिल न सिर्फ 'हीरो' थे, न ही सिर्फ 'खलनायक' थे, लेकिन उनके कर्मों की आलोचना से मुंह मोड़ना सच्चाई से भागना होगा। भारत में चर्चिल को नायक मानने से इनकार करना एक ऐतिहासिक सच को स्वीकार करने की मांग है, जिसमें इंसानों को रंग, नस्ल और साम्राज्य के नाम पर भूखा मरने दिया गया। [Rh/PS]