अक्सर हमने लक्ष्मीबाई, शिवाजी, अकबर, औरंगजेब जैसे योद्धाओं के बारे में पढ़ा और सुना है, लेकिन इन योद्धाओं में एक नाम ऐसा भी था जो इतिहास के पन्नों में ही कहीं गुम हो गया। एक ऐसा योद्धा जिसने अपने जीवित रहते मुगलों को असम की धरती पर कदम रखने नहीं दिया। एक ऐसा योद्धा जिसका नाम भले ही इतिहास के पन्नों से गायब हो लेकिन उसकी बहादुरी और असम को मुगलों से बचाए रखने की जिद्द ने उसे अमर कर दिया। हम बात कर रहें है लचित बरफुकन की जिनकी तलवार की गूंज से औरंगज़ेब जैसा ताकतवर मुगल बादशाह भी कांप गया था।
कौन था असम का वह योद्धा जिसने मुगलों को डरा कर रखा था
हम बात कर रहे हैं असम के अहोम वंश के एक वीर योद्धा लचित बोरफुकान की। लचित बोरफुकान मोमाई तमूली बोरबरुआ के छोटे बेटे थे। जहांगीर और शाहजहां के शासनकाल तक वह मुगलों से युद्ध लड़ते हुए जनरल के पोस्ट तक पहुंच चुके थे। आहोम वंश ने लगभग 600 वर्षों तक असम पर शासन किया और मुगलों को कई बार पीछे खदेड़ा। लेकिन 1671 में हुए सराईघाट के युद्ध में जो वीरता लचित ने दिखाई, वो इतिहास के पन्नों में अमर हो गई।वो केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि एक रणनीतिकार, राष्ट्रभक्त और दूरदर्शी नेता भी थे। उन्होंने न केवल अपने सैन्य कौशल से मुगलों को पराजित किया, बल्कि असम की भाषा, संस्कृति और अस्मिता की रक्षा की।
जब लचित से डरने लगा था औरंगजेब
तो बात है 1671 कि, जब मुगलों ने असम को अपने अधीन करने के लिए बड़ी सेना भेजी। औरंगज़ेब ने अपने सबसे अनुभवी सेनापति राजा राम सिंह के नेतृत्व में एक विशाल सेना रवाना की। लेकिन लचित बरफुकन ने केवल रणनीति और हिम्मत के बल पर उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। सराईघाट की लड़ाई ब्रह्मपुत्र नदी पर लड़ी गई थी। लचित ने नौसेना का ऐसा इस्तेमाल किया, जो उस समय की किसी भी भारतीय सेना में दुर्लभ था। उन्होंने नदी की धारा, तट की स्थिति और छोटी नावों का भरपूर लाभ उठाते हुए मुगलों को हराया। एक किस्सा मशहूर है कि युद्ध के दौरान जब लचित बीमार हो गए, तब उन्होंने कहा, "देश के लिए एक बीमार लचित मरने से बेहतर है, लड़ते हुए मरना!”उन्होंने खुद नाव में सवार होकर युद्ध का नेतृत्व किया और अंततः असम को एक बार फिर मुगलों से मुक्त कराया। लचित की इस वीरता को देखकर औरंगजेब भी डर गया था और दोबारा उसने असम को अपने अधीन करने का प्रयास नहीं किया।
इतिहास ने ही भुला दिया इस महान योद्धा को
आश्चर्य की बात यह है की असम की धरती पर पैदा होने वाले और असम को मुगलों से सुरक्षित रखने वाले लचित को खुद असम नहीं कई सालों तक भुला दिया था। आज भारत में बड़े-बड़े वीर योद्धाओं के नाम लिए जाते हैं उनके बारे में बातें की जाती हैं उनके उदाहरण दिए जाते हैं लेकिन इतिहास के पन्नों से लचित बोरफुकान गायब है और ना ही इनके बारे में कोई जिक्र करता है। असम के लोग भी इनके बहादुर और इनके साहस को भूल चुके हैं ना स्कूल कॉलेज में उनके नाम लिए जाते हैं और ना ही असम के इतिहास में ही इनका नाम दर्ज है। लेकिन अब समय बदल रहा है अब धीरे-धीरे लोग लचित बोरफुकान के बारे में जान रहे हैं और देर से ही सही पर अब इन्हें वह सम्मान दिया जा रहा है जिसके यह हकदार थे।
असम में बनेगा 84 फिट का स्मारक
असम सरकार अब लचित बरफुकन की विरासत को फिर से जीवित करने के लिए कदम उठा रही है। इसी दिशा में, सरकार ने 84 फीट ऊंची लचित बरफुकन की प्रतिमा बनवाने का ऐलान किया है। यह प्रतिमा असम के ब्रह्मपुत्र तट के पास बनेगी और इस बात का प्रतीक होगी कि अब असम अपने सच्चे नायकों को नहीं भूलेगा।यह प्रतिमा असम के उत्तरी गुवाहाटी क्षेत्र में बन रही है। आपको बता दे कि इसकी ऊंचाई 84 फीट होगी, जो लचित की वीरता और योगदान को दर्शाएगी। इसे ग्रेनाइट और ब्रॉन्ज से बनाया जाएगा, ताकि यह आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित रहे। इसके साथ एक संग्रहालय और विज़िटर सेंटर भी बनाया जा रहा है, जहां लचित के जीवन और युद्धों की जानकारी मिलेगी।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी किया जिक्र
हाल के वर्षों में भारत सरकार ने भी लचित बरफुकन को याद किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में लचित की वीरता का जिक्र किया। यहां तक कि लचित की 400वीं जयंती पर दिल्ली में एक भव्य कार्यक्रम भी आयोजित किया गया, जिसमें उनके जीवन और युद्धों पर आधारित प्रदर्शनी लगाई गई। इससे एक संकेत साफ है, अब भारत अपने गुमनाम नायकों को याद कर रहा है।
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लचित बरफुकन की कहानी हमें ये सिखाती है कि देश की रक्षा केवल तलवार से नहीं, बल्कि साहस, दूरदर्शिता और निष्ठा से होती है। वो योद्धा, जिसने बिना किसी व्यक्तिगत लालच के केवल अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए जीवन न्यौछावर कर दिया। आज जब उनकी प्रतिमा बन रही है, तो यह सिर्फ एक मूर्ति नहीं है, यह एक प्रतीक है उस अस्मिता का, उस गौरव का, और उस इतिहास का, जिसे हमें कभी नहीं भूलना चाहिए। [Rh/SP]