न्यूज़ग्राम हिंदी: 20 जून से शुरू हुई भगवान जगन्नाथ की यात्रा अपने आप में ही एक बड़ा उत्सव है। दुनिया भर से लाखों की संख्या में लोग इस यात्रा में शामिल होने आते हैं। इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलराम और बहन देवी सुभद्रा के साथ शामिल होते हैं। तीनों अलग अलग रथ में सवार मंदिर से बाहर निकल भक्तों को दर्शन देते हैं। यात्रा में सबसे आगे भाई बलराम, उसके बाद देवी सुभद्रा और आखिर में भगवान जगन्नाथ रहते हैं। हर साल आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को यह यात्रा शुरू होती है और 11वें दिन समाप्त होती है। लगातार चलने वाली इस यात्रा की खास बात यह है कि यह एक मजार के सामने आके रुकती है।
आपको बता दें कि भगवान जगन्नाथ की यात्रा एक मजार के आगे कुछ देर के लिए रुकती है और पुनः आगे बढ़ती है। इस परंपरा के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। ऐसा कहा जाता है कि सालबेग नाम का एक मुस्लिम भगवान जगन्नाथ का बहुत बड़ा भक्त था। सालबेग की माता हिंदू थी और पिता मुसलमान। मुसलमान होने की वजह से उन्हें यात्रा में शामिल होने नहीं दिया जाता था और ना ही मंदिर में प्रवेश मिलता था। सालबेग जगन्नाथ की भक्ति में रात दिन लगा रहता था, एक बार यात्रा के लिए मथुरा से पूरी आते वक्त सालबेग की तबियत खराब हो गई। सालबेग ने भगवान से उनके यात्रा में शामिल होने और पूजा करने की प्रार्थना की। भगवान ने प्रसन्न होकर रथ का पहिया उसकी कुटिया के सामने रोक दी और लाखों कोशिशों के बावजूद वह हिला नहीं। जब सालबेग ने बाहर आकर भगवान जगन्नाथ की पूजा की तब जाकर रथ आगे बढ़ा।
तब से यह परंपरा चली आ रही है कि रथ यात्रा सालबेग की मजार के पास कुछ देर रुकेगी और फिर मौसी घर गुंडीचा के लिए रथ आगे बढ़ता है। गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ, भाई बलराम और बहन सुभद्रा 7 दिनों तक विश्राम करते हैं। कहा जाता है माता गुंडीचा भगवान जगन्नाथ की बहुत बड़ी भक्त थीं और उन्ही का सम्मान करते हुए भगवान उनसे हर साल मिलने आते हैं। यहां भगवान जगन्नाथ के दर्शन को आड़प दर्शन कहा जाता है। आपको बता दें कि रथ यात्रा का रथ बनने का काम अक्षय तृतिया से ही शुरू हो जाता है और इसमें हांसी और नीम के 884 पेड़ों का इस्तेमाल होता है। पुजारी द्वारा जंगल जाकर इन पेड़ों की पूजा की जाती है और सोने की कुल्हाड़ी से कट लगाया जाता है।
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