संत मुस्कराए, और बोले, "तुमने कभी मिठाई की दुकान के पास मंडराती मक्खी को देखा है ?"
युवक बोला, "हां महाराज, कई बार। वह तो कभी मिठाई पर बैठती है, तो कभी किसी गंदगी पर।"
संत बोले, "यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। मक्खी चाहे मिठाई पर बैठे, लेकिन यदि कोई गंदगी की टोकरी ले जाए, तो वह तुरंत उड़कर गंदगी पर बैठ जाती है। उसका मन स्थायी नहीं होता।"
"अधिकतर मनुष्य भी ऐसे ही होते हैं। वे कुछ समय के लिए ध्यान, पूजा (Worship) , जप करते हैं, भगवद्गीता के श्लोकों का स्वाद लेते हैं, पर मन में छिपी वासनाएँ, इच्छाएँ, मोह-माया उन्हें तुरंत संसार की ओर खींच ले जाती हैं।"
फिर संत ने एक और कहानी सुनाई, "एक किसान दिनभर खेत में मेहनत से पानी सिंचाई कर रहा था । सूरज डूबने के बाद, किसान ने चैन की सांस ली और सोचा, 'अब तो खेत में अच्छी तरह सिंचाई हो गया हो गई, लेकिन जब वह देखने गया, तो पाया कि खेत पूरी तरह सूखा पड़ा है। पानी एक बूँद भी नहीं रुका।"
युवक ने पूछा ऐसा क्यों हुआ गुरुदेव। संत बोले "क्योंकि खेत में कई बड़े-बड़े बिल थे। सारा पानी उन बिलों से होकर कहीं और चला गया,"
"बस, ऐसे ही, जब कोई व्यक्ति ध्यान करता है लेकिन उसका मन 'मान', 'सम्मान', 'कामना', 'लोभ', 'इच्छा', 'स्वार्थ' से भरा होता है, तो सारी साधना (Worship) उन विषय रूपी बिलों में बह जाती है। बाहर से वह भक्त जैसा दिख सकता है, पर भीतर उसका मन मलिन रहता है।"
संत कहते हैं मधुमक्खी की तरह बनो
अब एक और कहानी सुनते हुए संत ने कहा,"मक्खी की तरह एक और जीव है मधुमक्खी। वह केवल फूलों पर बैठती है, गंदगी पर नहीं। वह पराग चुनती है, शहद बनाती है, और जहां जाती है, वहां मिठास भर देती है।" उसी तरह, सच्चा साधक वह होता है, जो मधुमक्खी की तरह केवल शुभ, पवित्र और भगवद्चिंतन में रहता है। वह भक्ति के फूलों पर बैठकर आत्मा की मधुरता को समेटता है।"युवक बोला, "पर गुरुदेव," "हम सब मधुमक्खी जैसे क्यों नहीं बन पाते ?" संत बोले, "क्योंकि," "हमारे मन में अभी भी विषय-वासनाओं की मिलावट है। जैसे दूध में यदि दोगुना पानी मिला हो तो उसकी खीर बनाने में बहुत समय और मेहनत लगती है, वैसे ही जिस मन में वासनाओं की अधिकता हो, उसे पवित्र बनाने में लंबा समय लगता है।"
भक्ति का मूल है शुद्धता
"एक मैले दर्पण में सूर्य का प्रकाश नहीं दिखता। लेकिन वही दर्पण जब साफ किया जाए, तो सूर्य का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखता है। उसी तरह, मन रूपी दर्पण जब तक वासनाओं से ढका रहेगा, तब तक ईश्वर का प्रकाश नहीं दिखेगा।"
उसके बाद युवक ने चिंतित होकर संत से पूछा "तो क्या हमें ध्यान और साधना बंद कर देनी चाहिए ?"
संत मुस्कराते उत्तर देते हैं, "नहीं," "साधना (Worship) ही वह प्रक्रिया है जो मन को शुद्ध करती है। लेकिन साथ ही साथ तुम्हें यह भी देखना होगा कि कहीं मन में कोई गुप्त ‘बिल’ तो नहीं है, जिसमें तुम्हारा सब प्रयास बह रहा है।"
परमहंस की स्थिति बताते हुए संत कहते हैं
"परमहंस वह है," "जो संसार में रहकर भी भगवान (god) में तल्लीन रहता है। वह ना मन की इच्छा रखता है, ना प्रसिद्धि की। वह भक्ति रस का पान करता है, जैसे मधुमक्खी फूलों का रस चुनती है। उसकी साधना (Worship) कहीं और नहीं जाती, वह भीतर ही भीतर प्रभु से जुड़ती जाती है।"
युवक ने बड़ी आशा से पूछा, "क्या हम सब भी परमहंस बन सकते हैं ?"
संत बोले,"क्यों नहीं ?" "लेकिन उसके लिए मन को मलिनता से मुक्त करना होगा। केवल ऊपर से पूजा करने से कुछ नहीं होता। तुम्हारी भावना, नीयत,और लक्ष्य शुद्ध होने चाहिए।"
संत कहते हैं शुद्ध बनो तभी भगवान (god) मिलेंगे
"ईश्वर (god) का साक्षात्कार कोई असंभव कार्य नहीं है," "परंतु यह तभी संभव है जब मन में केवल वही हो, जो परमात्मा (god) को प्रिय हो। शुद्ध हृदय ही भगवान (god) का मंदिर बन सकता है।"
युवक ने दृढ़ निश्चय किया और कहा ,"तो अब से मैं सिर्फ शुद्ध विचारों का ही पालन करूंगा। "और मक्खी की तरह नहीं, मधुमक्खी की तरह जीवन जीउंगा ।
निष्कर्ष
यदि हमारा मन मक्खी की तरह चंचल और मलिन है, तो वह कुछ क्षणों के लिए ही भक्ति में लगेगा, फिर संसार की गंदगी में लौट आएगा। परंतु अगर हम मधुमक्खी की तरह बन जाएं जो सिर्फ पवित्रता और मधुरता चुनती है तो हम अपने जीवन को मधुर भक्ति से भर सकते हैं।
ईश्वर (god) को पाने का रास्ता मन की शुद्धता से होकर जाता है, बाहरी दिखावे से नहीं।