असम के सुदूर ढेकियाजुली गांव की देश की सबसे कम उम्र की शहीद 12 वर्षीय तिलेश्वरी बरुआ को आखिरकार आठ दशकों के बाद इतिहास में अपना स्थान मिल गया है। अंग्रेजों के शासन के दौरान क्रांतिकारी बरुआ ने पुलिस की गोली खाई थी और अपनी जवानी शुरू होने से पहले ही या यूं कहें कि बचपन में ही देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी। गुवाहाटी से लगभग 150 किमी उत्तर पश्चिम में, सोनितपुर जिले के अंतर्गत आने वाला ढेकियाजुली, 1942 में स्वतंत्रता आंदोलन के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पुलिस की बर्बरता का गवाह बना था।
महात्मा गांधी के 'करो या मरो' आह्वान के बाद 20 सितंबर, 1942 को कई सौ सत्याग्रही (प्रदर्शनकारी) स्थानीय पुलिस स्टेशन में तिरंगा फहराने के लिए जुटे थे। इसी समय आजादी के लिए संघर्षरत निहत्थे लोगों पर पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां बरसाईं, जिसमें तिलेश्वरी सहित कम से कम 15 लोग शहीद हो गए।
फरवरी 2021 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम विधानसभा के मार्च-अप्रैल चुनाव के लिए अपने प्रचार अभियान के तहत ढेकियाजुली का दौरा किया था और उन 15 शहीदों को श्रद्धांजलि दी थी। हालांकि दुख की बात यह है कि फरवरी 2021 तक उनके सर्वोच्च बलिदान की कहानी देश के बाकी हिस्सों में अपरिचित और अनसुनी रही।
मनबर नाथ, कुमोली देवी, माहिरम कोच, रतन कचारी, सोरुनाथ चुटिया, मनीराम कचारी, दयाल पनिका, लेरेला कचारी, खाहुली देवी, मंगल कुकरू और अन्य नामचीन व्यक्तियों की शहादत और बलिदान की कहानियां समान रूप से हृदयविदारक हैं, जिनमें से एक भिखारी था और एक संन्यासी (भिक्षु) था।
ढेकियाजुली की संघर्ष गाथा लंबे समय तक केवल असम राज्य तक ही सीमित रही। हालांकि इस घटनाक्रम के एक या दो पुस्तकों में महत्वहीन और अपर्याप्त संदर्भ उपलब्ध थे, मगर इसे अधिक लोगों तक पहुंच प्राप्त न हो सकी।
पिछले साल फरवरी में ही ढेकियाजुली की गाथा 'ढेकियाजुली 1942: द अनटोल्ड स्टोरी' नामक पुस्तक में विस्तार से सामने आई थी।
गुवाहाटी के एक अनुभवी शोधकर्ता, लेखक एवं पत्रकार और वर्तमान में असम के राज्य सूचना आयुक्त, समुद्र गुप्त कश्यप द्वारा लिखित, यह पुस्तक पहली बार इस भूले-बिसरे इतिहास को बाहरी दुनिया में ले जाती है।
पुस्तक के प्रकाशन के बाद, ढेकियाजुली पुलिस स्टेशन, जहां भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सबसे भीषण नरसंहार हुआ था, को भी असम सरकार द्वारा एक विरासत संरचना घोषित किया गया।
कश्यप के अनुसार, ढेकियाजुली की घटना, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पुलिस की बर्बरता की सबसे खराब घटना थी।
उन्होंने आईएएनएस से बात करते हुए कहा, "उपमहाद्वीप में किसी अन्य स्थान पर 1942 के दौरान इतने लोग शहीद नहीं हुए थे, जितने उस दिन ढेकियाजुली में हुए थे। स्थानीय इतिहासकारों द्वारा हालांकि चार महिलाओं सहित 14 शहीदों के नामों की ही पुष्टि की गई है, मगर वहां पर कम से कम छह और लोगों के नाम भी शामिल हैं, जो बाद के हफ्तों में पुलिस फायरिंग, लाठीचार्ज और किराए के बदमाशों के हमले के कारण गंभीर रूप से घायल होने के बाद मारे गए थे।"
उन्होंने यह भी बताया कि भिखारी और 'संन्यासी' भले ही प्रदर्शनकारियों द्वारा निकाले गए जुलूस का हिस्सा न हों, लेकिन इसके बावजूद उन पर पुलिसकर्मियों ने गोलियां चला दी थी, क्योंकि वे मुख्य सड़क के पार प्रदर्शनकारियों को देखने के लिए उनके पीछे थे।
लेखक ने कहा है कि संभवत: भारत में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है, जहां स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक साधु और एक भिखारी ने शहादत दी हो।
ढेकियाजुली थाना अंतर्गत ग्राम निज बड़गांव के एक सीमांत किसान भाभाकांत बरुआ की इकलौती बेटी, तिलेश्वरी बरुआ ज्योतिप्रसाद अग्रवाल द्वारा रचित देशभक्ति गीतों से इतनी प्रभावित थी कि 'सत्याग्रहियों' ने इन गीतों को गाया तो वह स्वेच्छा से ही जुलूस में शामिल हो गई थीं। स्थानीय कांग्रेस नेताओं के साथ लोगों ने 20 सितंबर 1942 को स्थानीय पुलिस थाने के ऊपर तिरंगा फहराने का आयोजन किया था।
उन्होंने 12 साल की शहीद लड़की के बारे में बात करते हुए कहा, "वह पहले से ही उन देशभक्ति गीतों में से कई को दिल से सीख चुकी थीं और अक्सर उन्हें अपने दोस्तों के साथ गाती थीं।"
हाथ में छोटा झंडा लिए तिलेश्वरी उस भीड़ में शामिल थीं, जो पुलिस कमांडर कमलाकांत दास के सीटी बजाकर इशारा करने के तुरंत बाद थाना परिसर में दाखिल हुई थी।
पुलिस फायरिंग के बीच उन्होंने मनबर नाथ, गोलोक नियोग और चंद्रकांता नाथ को झंडा फहराने की कोशिश करते देखा। और जैसे ही वह 'वंदे मातरम' के नारे लगाने लगीं, उसने महिराम कोच को बहुत करीब से गोली लगते हुए देखा।
आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस नजारे ने उस छोटी बच्ची को डरने के बजाय अचानक एक क्रूर बाघिन में बदल दिया और वह 'वंदे मातरम' के नारे लगाते हुए आगे बढ़ने लगीं।
कश्यप ने बताया कि जैसे ही बच्ची के कुछ कदम आगे बढ़े, उसी समय उसे एक गोली लगी और उसका संतुलन बिगड़ गया।
दो 'मृत्यु वाहिनी' स्वयंसेवकों ने तुरंत खून से लथपथ तिलेश्वरी को उठाया और उसे थाने से बाहर निकाला और सड़क के पार एक दुकान के बरामदे में रख दिया।
कुछ स्वयंसेवकों ने उसे कुछ प्राथमिक उपचार देने की कोशिश की और तभी उसके मामा नंदीराम भुइयां ने उसे देखा तो तुरंत अपनी पीठ पर उठा लिया और दौड़ना शुरू कर दिया। वह बच्ची को लेकर मुख्य सड़क पर एक पुल पर बने एक बैरिकेड तक पहुंचे ही थे, कि पुलिस की ओर से तैनात किए गए हथियारबंद बदमाशों ने उन पर हमला करना शुरू कर दिया। वह बदमाश कथित तौर पर पुलिस द्वारा किराए पर तैनात किए गए थे, जिनके पास लाठी-डंडे थे।
इस दौरान गोली लगने से बुरी तरह घायल तिलेश्वरी सड़क पर गिर चुकी थीं और भुइयां पास के खेत में कुछ झाड़ियों के पीछे शरण लेने के लिए बदमाशों के बीच से रेंगने में सफल रहे।
अपनी भांजी को स्वास्थ्य केंद्र ले जाने के लिए उसे बचाने के लिए एक उपयुक्त क्षण की प्रतीक्षा करने के बावजूद, भुइयां ने कुछ घंटों बाद एक पुलिस ट्रक को तिलेश्वरी को सड़क से उठाते हुए देखा।
कश्यप ने दावा किया, "तिलेश्वरी की मौत सड़क पर ही हो चुकी थी या कहीं और, ये पता नहीं चल सका, क्योंकि पुलिस ने उसे जिंदा या मृत कभी नहीं लौटाया। हालांकि अभी तक सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर मान्यता तो नहीं दी गई है, मगर 12 वर्षीय तिलेश्वरी बरुआ निस्संदेह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की सबसे कम उम्र की शहीद हैं।"
ढेकियाजुली घटना के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर गौर करें तो इस इलाके से गरीब किसानों, महिलाओं और चाय जनजाति समुदायों के सदस्यों की भी आंदोलन में भारी भागीदारी रही है।
ढेकियाजुली विधायक और असम सरकार में मंत्री अशोक सिंघल ने कहा, "लेकिन फिर भी स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहासकारों और शोधकर्ताओं ने विशेष रूप से ढेकियाजुली घटना और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में असम की भूमिका की घोर उपेक्षा की है।"
उन्होंने आगे कहा, "कश्यप की किताब असम में स्वतंत्रता आंदोलन के कई महत्वपूर्ण प्रकरणों में से एक को बाहरी दुनिया में ले जाने का एक छोटा सा प्रयास है।"
(आईएएनएस/AV)