दलाई लामा के उत्तराधिकारी को लेकर अखबारों में सोशल मीडिया पर चर्चाएं हो रही हैं। एक तरफ चीन का कहना है कि दलाई लामा का चयन एक लॉटरी सिस्टम के तहत चीन करेगा तो वहीं दूसरी तरफ तिब्बत के 14वें दलाई लामा ने यह साफ घोषणा कर दी है की 15वें दलाई लामा उनके द्वारा या फिर उनके संगठन के द्वारा ही चयनित होगा। चीन और तिब्बत के इस लड़ाई के पीछे एक कहानी छुपी है, जिसके कारण आज चीन तिब्बत के राजनीतिक और धार्मिक फैसलों में हस्तक्षेप कर रहा है। तो आइए जानतें है दलाई लामा की वो कहानी जिसके बारे में काफ़ी कम लोगों को पता है।
कौन है दलाई लामा?
दलाई लामा" एक उपाधि है, जिसका अर्थ है "ज्ञान का सागर"। तिब्बत के 14वें दलाई लामा का असली नाम तेनज़िन ग्यात्सो है, वे तिब्बत की धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान के प्रतीक हैं। तिब्बत के लोग दलाई लामा को अपना संरक्षक मानते हैं और ऐसी मान्यता है कि दलाई लामा की मृत्यु के बाद उनका दोबारा जन्म होता है और एक बच्चे के रूप में वह वापस आते हैं, और इस बच्चे को दलाई लामा के रूप में वापस चुना जाता है।
तिब्बत के 14वें दलाई लामा 90 वर्ष के हो चुकें है और शारीरिक रूप से बहुत मजबूत नहीं है इसी कारण अभी दलाई लामा के उत्तराधिकारी को लेकर चर्चाएं हो रहीं है। दलाई लामा ने साफ तौर पर यह स्पष्ट कर दिया है कि या तो वे अपने उतराधिकारी की घोषणा करेंगे या फिर उनकी मृत्यु के बाद उनके संगठन के द्वारा ही 15वें दलाई लामा का चयन होगा और इसमें चीन का कोई हस्तक्षेप वे बर्दाश नहीं करेंगे। वहीं चीन के विदेश मंत्रालय की तरफ़ से भी यह बयान आया है कि दलाई लामा का चयन चीन के धर्मित, राजनीतिक और नियामकों के अनुसार ही किया जाएगा। सवाल ये उठता है कि चीन तिब्बत के आंतरिक मामलों में दबाव क्यों बना रहा है ?
चीन क्यों दे रहा है तिब्बत के मामलों में दखल?
तो बात दरअसल 1950 की है, जब चीन की सेना ने तिब्बत पर हमला किया और लगभग एक साल के अंदर यानी 1951 में चीन ने तिब्बत पर अपना कब्ज़ा कर लिया। तिब्बत के लोगों ने चीन के इस बर्ताव का विरोध किया बदले में चीन ने बेरहमी से इन विद्रोह को दबा दिया। चीन की क्रूरता इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उन्होंने तिब्बत में सभी बौद्ध मठों को जला दिया, तोड़फोड़ किया इससे रुष्ट बौद्ध भिक्षुओं ने उनके खिलाफ बगावत कर दी। लेकिन अंत में चीन ने इन्हें भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया और आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया।
इन सभी घटनाओं के बाद चीन ने तिब्बत की राजधानी लहासा में चीन के झंडा फहरा दिए और तिब्बत को अपने संरक्षण में कर लिया। तिब्बत हमेशा से एक आजाद देश रहना चाहता था वहां का कल्चर, वहां के लोग और वहां की धार्मिक मान्यताएं सभी अलग हैं और इसलिए वे लोग एक अलग राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे, लेकिन चीन ने ऐसा होने नहीं दिया। अंत में 1959 में एक बार फिर तिब्बत के लोगों ने चीन के खिलाफ बगावत कर दी। लेकिन चीन ने इस बगावत को भी बड़ी क्रूरता के साथ कुचल दिया।
क्यों लेना पड़ा दलाई लामा को भारत में शरण?
चीन की सेना को पीपल्स लिबरेशन आर्मी यानी आज़ाद करने वाली सेना के नाम से जाना जाता है, लेकिन दुर्भाग्य ये है कि ये सेना ही तिब्बत के लोगों का जीना हराम करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी। आपको बता दें कि 1959 तक पूरे तिब्बत में यह ख़बर फैल गई थी कि तिब्बत के 14वें दलाई लामा की जान खतरे में है और चीन उन्हें कभी भी मार देगी। उस वक्त दलाई लामा एक साधारण सैनिक के कपड़े में बचते बचते और चीनी सेना से छुपते हुए अपने बॉडी गार्ड्स और कुछ लोगों के साथ रात भर पैदल चलते हुए हिमाल की पर्वत श्रृंखला को पार करते हुए भारत के हिमाचल प्रदेश पहुंचे।
जब तक दलाई लामा सुरक्षित भारत नहीं पहुंचे और तिब्बत में लोगों को यह खबर नहीं मिली तब तक उन्हें लग रहा था कि उनके दलाई लामा को चीन ने मार दिया है। उस समय भारत सरकार ने दलाई लामा और बाकी तिब्बत अनुयायियों को हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में शरण दी और आज भी दलाई लामा भारत के इसी धर्मशाला में रहते हैं और यही से तिब्बत की निर्वाचित सरकार चल रही है।
आज भी तिब्बत चीन के कब्जे में है ?
चीन ने साल 1950 से लेकर अब तक तिब्बत में तिब्बती संस्कृति और पहचान को कुचलने की कोशिश की है। इस दौरान मठों और धार्मिक स्थलों को नष्ट किया गया और बौद्ध धर्म को कमजोर करने की कोशिश की गई। चीन ने न केवल तिब्बती भाषा और परंपराओं पर प्रतिबंध लगाए बल्कि स्कूलों में चीनी भाषा को अनिवार्य कर दिया।चीन की नीतियों की वजह से तिब्बत में चीनी आबादी बढ़ाई गई। इसका असर ये हुआ कि तिब्बत में तिब्बती लोग अपनी ही भूमि पर अल्पसंख्यक बन गए।
अक्सर ये खबरें सामने आती हैं कि चीन, तिब्बती लोगों की निगरानी कर उन्हें गिरफ्तार करता है। इस दौरान उन्हें यातनाएं भी दी जाती हैं और जबरन श्रम भी करवाया जाता है। चीन द्वारा तिब्बत के लोगों के विरोध प्रदर्शनों को क्रूरता से दबाया जाता है, जिसकी वजह से कई तिब्बती भिक्षुओं और नागरिकों ने आत्मदाह जैसे कठोर कदम उठाए हैं।
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वैसे तो चीन की क्रूर नीति से सभी परेशान है लेकिन अब जब तिब्बत के दलाई लामा ने यह घोषणा कर दिया है कि चीन दलाई लामा के उत्तराधिकारी चुनने के लिए कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा तब यह देखना दिलचस्प हो जाता है की क्या 1960 की कहानी दोबारा घटित होती है या इस बार दलाई लामा कोई नई कहानी लिखते हैं। [Rh/SP]